इतनी हड़बड़ी में क्यों

यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि यौन अपराधों के खिलाफ सख्त कानून बनाने की प्रक्रिया में सरकार ने न सिर्फ न्यायमूर्ति वर्मा कमेटी की सिफारिशों की लगभग अनदेखी कर दी है, बल्कि संसद की उपेक्षा करते हुए वह एक अध्यादेश ले आई है, जिस पर राष्ट्रपति के दस्तखत भी हो चुके हैं।

सरकार को यही करना था, तो उसने वर्मा कमेटी का गठन क्यों किया था? हालांकि यह अध्यादेश संसद की मंजूरी के बाद ही कानून की शक्ल ले पाएगा, लेकिन जब बजट सत्र सामने है, तब अध्यादेश की जल्दबाजी किसलिए? रेल किराया बढ़ाते हुए भी उसने संसद को इसी तरह नजर अंदाज किया था।

इससे इनकार नहीं कि दिल्ली गैंगरेप मामले के बाद जनमत क्षुब्ध है और बलात्कारियों को कठोर सजा पाते वह देखना चाहता है। लेकिन कानून किसी एक मामले के आधार पर नहीं बनता। अपराधियों को सख्त सजा देना जितना जरूरी है, सत्ता और समाज की पुरुषवर्चस्वादी सोच को बदलना भी उतना ही आवश्यक है। वर्मा कमेटी के सुझाव इसीलिए दूरगामी महत्व के थे, क्योंकि उनमें यौन अपराधों को केवल कानून-व्यवस्था की समस्या मानने के बजाय व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा गया है।

उसमें भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों से लेकर पुलिस के दागी अधिकारियों व जवानों की जिम्मेदारी तय करने के प्रावधान हैं। इसी कारण उसमें यह सिफारिश की गई कि यौन अपराध करने वाले सेना के लोग विशेषाधिकार कानून की आड़ न ले पाएं। लेकिन सरकार ने इन पर विचार करना जरूरी नहीं समझा, क्योंकि वह यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में है।

इसीलिए स्त्रियों को संविधान प्रदत्त लैंगिक समानता का अधिकार देने का माहौल बनाने के बजाय वह बलात्कार के दुर्लभतम मामलों में मृत्युदंड का प्रावधान ले आई है। सिर्फ यही नहीं कि आधुनिक समाज में फांसी के पक्षधर अब कम रह गए हैं, केवल यही नहीं कि मृत्युदंड अपराध कम करने की गारंटी नहीं है, यह भी कि तमाम महिला संगठन यौन अपराधियों को फांसी देने का प्रबल विरोध कर रहे हैं। तो क्या महंगाई से भ्रष्टाचार तक हर मोर्चे पर घिरी केंद्र सरकार बलात्कारियों के लिए कठोर कानून बनाने की जल्दबाजी में इसलिए है कि चुनावी मैदान में इसे उपलब्धि बताकर अपनी पीठ ठोक सके!

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